कभी कभी अकेला बैठता हूँ तो सोचता हूँ,
हम क्यूँ बड़े हुए, हम क्यूँ बड़े हुए !!
जब छोटे थे तो क्या वो दिन थे,
जब मक्कार - ओ - फरेब सब मुमकिन थे,
करते थे शरारत भी तो प्यार मिलता था,
छोटे बड़े सबका ही दुलार मिलता था !
ना था कोई दुख़, ना बोझ कोई सीने पे,
अब क्यों सवाल ये जिम्मेदारियों के खड़े हुए,
कभी कभी अकेली बैठता हूँ तो सोचता हूँ,
हम क्यूँ बड़े हुए, हम क्यूँ बड़े हुए !!
वक़्त को मै पलट कर वापिस ले जा पाता
अपने बचपन को काश फिर से जी पाता,
होता फिर से खुशियों का हंगामा जीवन में,
ना खोते वो मासूमियत जो थी तन मन में !
जिंदगी के हालातों को बदलने की नाकाम कोशिशों में,
जाने क्यों जी रहे है हम जिंदगी से लड़े हुए,
कभी कभी अकेली बैठता हूँ तो सोचता हूँ,
हम क्यूँ बड़े हुए, हम क्यूँ बड़े हुए !!